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पहाडिय़ा को आज जातीय व्यवस्था से परहेज क्यों?

the third eye
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हरियाणा के राज्यपाल एवं राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाडिय़ा गत दिवस पुष्कर सरोवर की पूजा-अर्चना के बाद अपने अखिल भारतीय खटीक समाज के पुश्तैनी पुरोहित पर यह कह कर जम कर बरसे कि मेरी कोई बिरादरी नहीं है और धार्मिक स्थानों को जातियों में मत बांटो। वे खटीक समाज के पुश्तैनी पुरोहित द्वारा विजिटिंग कार्ड देने से गुस्साए और उसकी बही में हस्ताक्षर करने से भी इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि जाति क्या होती है, मेरी कोई बिरादरी नहीं है और न ही मेरा कोई पुश्तैनी पुरोहित है। उन्होंने कहा कि मैं किसी से भी पूजा करवा सकता हूं। मैं पुष्कर में कई बार आ चुका हूं तथा लेकिन इससे पहले कभी भी पुश्तैनी पंडा नहीं आया। पहाडिया ने कहा कि यह गलत व्यवस्था बदलना चाहिए। इस वाकये से कई अहम सवाल उठ खड़े हुए हैं।
सबसे बड़ा सवाल ये कि पहाडिय़ा आज जिस जातीय व्यवस्था से परहेज कर रहे हैं, क्या इसी जातीय व्यवस्था की वजह से ही इस मुकाम पर नहीं पहुंचे हैं? वे जिस जांत-पांत पर आज ऐतराज कर रहे हैं, क्या उसी व्यवस्था के चलते आरक्षित विधानसभा सीट से चुनाव लड़े हैं? अगर उन्हें इस जातीय व्यवस्था से इतनी ही एलर्जी थी, तो विधायक पद का चुनाव आरक्षित सीट से ही क्यों लड़े, किसी सामान्य सीट से चुनाव लड़ते? क्या कांग्रेस ने उन्हें मेरिट के आधार पर राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाया था, या फिर अनुसूचित जाति को तुष्ट करने के लिए इस पद से नवाजा? क्या इस प्रचलित धारणा से इंकार किया जा सकता है कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक अथवा राजनीतिक पदों पर नियुक्तियां राजनीतिक आधार पर जातीय संतुलन को बनाए रखने के लिए किया जाता? कैसी विचित्र बात है कि कहीं न कहीं जिस जाति की बदौलत पहाडिय़ा आज इस मुकाम पर हैं, उसे वे सिरे से नकारते हुए कह रहे हैं कि जाति क्या होती है? इतने बड़े पद पर पहुंचने के बाद वे कह रहे हैं कि उनकी कोई बिरादरी नहीं है? सवाल ये उठता है कि अगर उनका जाति व बिरादरी पर कोई विश्वास नहीं है तो वे अपने नाम के साथ खटीक समाज के पहाडिय़ा सरनेम का उपयोग क्यों करते हैं? क्या उन्होंने कभी जातीय व्यवस्था के तहत चल रही आरक्षण व्यवस्था का विरोध किया है या अब करने को तैयार हैं?
हो सकता है कि उनका कोई पुश्तैनी पंडा न हो, या उनकी जानकारी में न हो, मगर तीर्थराज पुष्कर में परंपरागत रूप से जातीय आधार पर चल रही पुरोहित व्यवस्था को कैसे नकार सकते हैं? यदि उनकी पूर्व की तीर्थयात्रा के दौरान गलती से कोई पुरोहित दावा करने नहीं आया तो आज आया पुरोहित अवैध है? बेशक यह यह उनकी इच्छा पर निर्भर है कि वे अपनी जाति के पंडे से पूजा करवाएं या न करवाएं, मगर उस व्यवस्था को ही सिरे से कैसे नकार सकते हैं, जो कि पुरातनकाल से चली आ रही है, जिसमें कि सभी यकीन है? सच तो ये है कि इसी व्यवस्था के चलते नई पीढ़ी के लोगों को अपने पुरखों के बारे में जानकारी मिलती है, जो सामान्यत: अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है। सवाल ये भी है कि वे किस अधिकार के तहत एसडीएम को हिदायत दे गए कि पुष्कर तीर्थ में की जा रही जातिवादी पंडागिरी को बंद करवाएं? क्या उनकी हिदायत को मानने के लिए एसडीएम बाध्य हैं? क्या इसके लिए राज्य सरकार को अनुशंषा करने की बजाय उस अधिकारी को निर्देश देना उचित है, जो कि उनके अधीन आता ही नहीं है? अव्वल तो ये भी कि क्या एसडीएम के पास ऐसे अधिकार हैं कि वे जातीय आधार पर हजारों से साल से चल रही पंडा व्यवस्था को बदलवा दें?
वैसे एक बात है कि पहाडिय़ा के विचार वाकई उत्तम हैं और आदर्श व्यवस्था के प्रति उनके विश्वास के द्योतक हैं, मगर ये सवाल इस कारण उठते हैं कि जिस व्यवस्था की पगडंडी पर चल कर वे आज जहां आ कर ऐसी आदर्श व्यवस्था की पैरवी करते हैं, वह बेमानी है।
-तेजवानी गिरधर

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