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राहुल के खारिज होने का डर है कांग्रेस को?

the third eye
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एक ओर जहां कांग्रेस के अनेक नेता आगामी चुनाव अपने युवराज राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की रट लगाए हुए हैं और देश का भावी प्रधानमंत्री मान कर चल रहे हैं, वहीं लंदन की मशहूर पत्रिका द इकोनोमिस्ट द्वारा वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम को प्रधानमंत्री पद का संभावित उम्मीदवार बताए जाने के साथ ही यह बहस छिड़ गई है कि क्या राहुल अब भी आगे आने से कतरा रहे हैं, जबकि उन्हें लोकसभा चुनाव के लिए गठित समन्वय समिति का अध्यक्ष बनाया जा चुका है? क्या सोनिया गांधी, स्वयं राहुल गांधी व कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह डर सता रहा है कि वे खारिज हो गए तो कांग्रेस के भविष्य का क्या होगा? कहते हैं न कि बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की, कहीं कांग्रेस ये खतरा तो नहीं कि राहुल की मुट्ठी खुलने पर खाक की हो गई तो उसका क्या होगा? कहीं आखिरी ब्रह्मास्त्र भी नाकामयाब हो गया तो परिवारवाद पर चल रही इस सौ से भी ज्यादा साल पुरानी इस पार्टी का क्या होगा?
हालांकि पी. चिदम्बरम के बारे में किया गया यह कयास एक विदेशी पत्रिका ने किया है, जिसके दो ही मायने हैं। एक, या तो कांग्रेस के अंदरखाने की खबर खोजने में देशी मीडिया फेल हो गया, या फिर यह किसी सोची समझी राजनीति व रणनीति का हिस्सा है। यह रणनीति कांगे्रस की भी हो सकता है और विदेशी ताकतों की भी। कदाचित कांग्रेस पानी में नया कंकड़ फैंक कर उठने वाली लहरों से अनुमान लगाना चाहती हो। या फिर विदेशी ताकतें कांग्रेस के कथित भविष्य राहुल पर ग्रहण लगाने की साजिश रच रही हों। जो कुछ भी हो, इस खबर ने देश में, विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी में तो खलबली मचा दी है।
यदि यह माना जाए कि इस खबर में कुछ दम है, तो इसका अर्थ एक ही है कि कांग्रेस अपना वजूद बनाये रखने के लिए तुरप का इक्का बचाए रखना चाहती है। अर्थात सोनिया व राहुल सुप्रीमो की भूमिका में रखा जाएगा व प्रधानमंत्री कोई और सर्वस्वीकार्य चेहरा आगे रखने की रणनीति अपनाई जाएगी। बेशक कांग्रेस का यह खेल काफी सुरक्षित है, मगर इस अति सुरक्षा के चलते राहुल का ग्राफ न केवल और गिरेगा, अपितु उनके पूरी तरह से नकारा हो जाने का खतरा भी है। इस सिलसिले में सोनिया गांधी के करामाती व्यक्तित्व का जिक्र करना प्रासंगिक होगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंहराव के हाथों बेड़ा गर्क हुई कांग्रेस को पति राजीव गांधी की मृत्यु के बाद लंबे समय तक सत्ता के प्रति अरुचि जताने की वजह से सोनिया गांधी के प्रति उत्पन्न सहानुभूति के कारण कांग्रेस को प्राण वायु मिली थी। उस वक्त सोनिया व राहुल को देखने और हिंदी में बोलत हुए सुनने का बड़ा क्रेज था। सभाओं में श्रोताओं की संख्या दो लाख तक पहुंच जाती थी। भले ही सोनिया का वह क्रेज अब नहीं, मगर कांग्रेस पर अच्छी पकड़ के चलते पार्टी व सरकार को बहुत बड़ी दिक्कत नहीं आई। मगर अब जब कि सोनिया थक चुकी हैं और राहुल को आगे लाना चाहती हैं, जो कि कांग्रेस की मजबूरी भी है, राहुल के प्रति कहीं क्रेज नजर नहीं आता। विशेष रूप से उत्तरप्रदेश के चुनाव की कमान अपने हाथ में लेने के बाद भी जब कांग्रेस नहीं उबर पाई तो सर्वत्र यही चर्चा होने लगी कि राहुल में चमत्कार जैसी कोई बात नहीं, जिसके बूते कांग्रेस की वैतरणी इस बार पार हो पाए। इसके अतिरिक्त लगातार बड़े-बड़े घोटाले उजागर होने, भ्रष्टाचार, महंगाई और अन्ना हजारे -बाबा रामदेव की मुहिम के चलते कांग्रेस की हालत पहले के मुकाबले बेहद खराब है। संभव है कांग्रेस के रणनीतिकार इस स्थिति को अच्छी तरह समझ चुके हैं, इस कारण कांग्रेस का भविष्य बर्बाद होने से बचाने की खातिर राहुल को सुरक्षित रख कर पी. चिदम्बरम जैसे चमकीले अर्थशास्त्री को आगे रखना चाहते हैं।
वैसे भी कांग्रेस के संकटमोचक प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद वित्तीय व्यवस्था का दायित्व चिदंबरम निभा रहे हैं। जब ममता बनर्जी ने एफडीआई के मुद्दे पर सरकार से समर्थन वापस लिया, तब से संकट मोचक के रूप में चिदंबरम सहयोगी डीएमके समेत विरोधियों को भी इस मुद्दे पर अपने पक्ष में लाने में कामयाब रहे। इसके अतिरिक्त कैश सब्सिडी योजना कांग्रेस के लिए गेम चेंजर साबित हो सकती है।
-तेजवानी गिरधरrahul-gandhi-10-261x300

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