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हिंदी की खुद हम ही कर रहे हैं हिंदी Jagran Junction Forum

the third eye
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शीर्षक पढ़ कर ही आप समझ गए होंगे कि हमने हिंदी भाषा की हालत क्या कर दी है। शीर्षक में दूसरी बार आया हिंदी शब्द उपमेय है, जिसे आजकल बोलचाल की भाषा में किसी का अपमान करने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है। जिस संदर्भ में दूसरी बार आए हिंदी शब्द को शीर्षक में शामिल किया गया है, उसके लिए क्षमा याचना के साथ अनुरोध है कि यह केवल आपका ध्यान आकर्षित करने के लिए उपयोग में लिया गया है। उद्देश्य है हिंदी की दुर्गति को रेखांकित करना।
कितने दुर्भाग्य की बात है कि हिंदी शब्द का उपयोग अपमान करने के लिए किया जाने लगा है। यह हिंदी की दुर्गति की पराकाष्ठा है। इसका सीधा सा अर्थ है कि आज हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में हिंदी कितनी हेय दृष्टि से देखी जा रही है। सच तो ये है कि अगर कोई अपनी मित्र मंडल में शुद्ध हिंदी का उपयोग करता है, अथवा उसमें अंग्रेेजी के शब्दों का उपयोग नहीं करता तो उसे गंवार माना जाता है। उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसके विपरीत जो हिंदी बोलते वक्त बार-बार अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करता है, उसे ज्यादा सम्मान मिलता है। सच तो ये है कि अपने आपको अच्छा पढ़ा लिखा साबित करने और सामने वाले को प्रभावित करने मात्र के लिए हम हिंदी का शब्द जानते हुए भी जानबूझकर अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है मानों हमारे हिंदी शब्दों की तुलना में अंग्रेजी के शब्द ज्यादा सटीक अर्थ रखते हैं। सच ये है कि हिंदी भी समृद्ध भाषा है, मगर चूंकि सामने वाले को अंग्रेजी के शब्द ज्यादा प्रिय होंगे, इसी कारण हम यह गुस्ताखी करते हैं। यकीन न हो तो इस्तेमाल करके देखिए। कभी किसी अफसर के सामने अपनी बात हिंदी में करके उसका असर देखिए और कभी अंग्रेजी मिश्रित हिंदी में, आपको साफ पता लग जाएगा कि अंग्रेजी मिश्रित हिंदी ज्यादा प्रभावित करती है। और अगर आपने अंग्रेजी में ही अपनी बात की तो फिर अफसर आपको कुर्सी पर बैठने की कह कर पूरा सम्मान भी देगा।
हिंदी की दुर्गति के एक और पहलु पर भी प्रकाश डालना चाहता हूं। दरअसल हम हिंदीभाषी भले ही आम बोलचाल में हिंदी भाषा का उपयोग करते हैं, मगर अमूमन उनका उच्चारण ठीक से करना नहीं जानते। लिखने के मामले में और भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। संपादक, लेखक या प्रूफ रीडर को छोड़ भी दें तो आम हिंदी भाषी शुद्ध हिंदी भी नहीं लिख सकता। वह हर पंक्ति में वर्तनी की कम से दो गलतियां जरूर करेगा। अफसोस कि हमने इस ओर ध्यान देना ही बंद कर दिया है। इस हद तक कि हम ऐसी प्रवृत्ति अथवा स्थिति को स्वीकार ही कर बैठे हैं, उस पर कभी आपत्ति तक नहीं करते। इसके विपरीत यदि कोई अंग्रेजी के शब्द में वर्तनी की गलती करता है तो उस पर हंसते हैं कि उसे ठीक से अंग्रेजी नहीं आती। हिंदी की तुलना में अंग्रेजी में वर्तनी की शुद्धता पर कितना ध्यान दिया जाता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजी में लिखे अधिसंख्य साइन बोर्डों में आपको अंग्रेजी शुद्ध ही नजर आएगी, क्योंकि वहां पूरा ध्यान दिया जाता है। इसके विपरीत हिंदी में लिखे साइन बोर्डों में से तकरीबन 25 फीसदी में वर्तनी की अशुद्धि पाएंगे। यह स्थित तब है, जबकि हिंदी जैसी बोली जाती है, अर्थात जैसा उच्चारण होता है, वैसी ही लिखी जाती है, जबकि अंग्रेजी में ऐसा नहीं है।
ऐसा नहीं है कि हम हिंदी की दुर्गति के प्रति सचेत नहीं हैं, मगर उसके बाद भी लगातार वह उपेक्षित होती जा रही है। कई बार तो ऐसा लगता है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार और उसका सर्वस्वीकृतिकरण एक भावनात्मक मुद्दा मात्र रह गया है। उसके प्रति हम वास्तव में सजग नहीं हैं। हम हर साल हिंदी को सम्मान देने की खातिर 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाते हैं, क्योंकि 14 सितंबर, 1949 को भारतीय संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी भाषा को अखंड भारत की प्रशासनिक भाषा का दर्जा दिया गया, लेकिन उसमें औपचारिकता कितनी अधिक होती है, रस्म अदायगी इतनी ज्यादा होती है, हम सब जानते हैं। हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में लगभग सभी स्कूल, कॉलेजों में कोई न कोई आयोजन किया जाता है, मगर उनमें भागीदारी निभाने वालों की संख्या नगण्य होती है। और यही वजह है कि दिवस मनाने के पीछे जो मकसद है, वह पूरा नहीं हो पा रहा।
वस्तुत: हिंदी भाषा की गरिमा उसकी समृद्धता व हमारी संस्कृति के पोषण की वजह से ही नहीं है, हमारे देश की भौगोलिक स्थिति के कारण भी है। इस बारे में हिंदी भाषा के जानकार और राज्यसभा में सहायक निदेशक के रूप में कार्यरत डा. मनोज श्रीवास्तव का कहना है कि जब किसी देश-विशेष में वहां की मूल भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा का प्रचलन होता है अथवा जब वहां विविध भाषाओं का प्रयोग होता है, जिस कारण किसी एक प्रदेश में दूसरे प्रदेश की प्रचलित भाषा के कारण नागरिकों को संवाद-संपर्क स्थापित करने में बड़ी कठिनाई होती है तो उस देश की किसी एक भाषा को संपर्क भाषा बनाया जाना अनिवार्य हो जाता है। यही स्थिति हमारे देश की है। यह आश्चर्यजनक बात है कि प्राकृतिक और भौगोलिक कारकों के बजाए भाषाओं के आधार पर ही यहां राज्यों का विभाजन हुआ जैसा लगता है। यहां तक कि राज्यों के नाम भी भाषाओं के अनुसार किए गए हैं। इस तरह यह प्रमाणित होता है कि इस देश की क्षेत्रीय भाषाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन भाषाई विभाजनों को चुनौती भी नहीं दी जा सकती है। भाषाई बाधाएं कभी-कभी इतनी असमाधेय सी लगती हैं कि हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। प्राय: दूसरे प्रांतों में जाकर हमें अपनी आवश्यकताएं इशारों में बतानी पड़ती हैं। यदि यह कहा जाए कि हम वहां अंग्रेजी के माध्यम से काम चला सकते हैं तो यह भी निरर्थक और हास्यास्पद-सा लगता है क्योंकि गांवों और दूर-दराज की अधिकांश जनता तो अभी भी अंगूठा-छाप है। ऐसे में, उनसे अंग्रेजी में संपर्क स्थापित करना तो बिल्कुल उनसे पहेली बुझाने जैसा है। इसलिए भारत में एक सहज और सुग्राह्य संपर्क भाषा का होना अति आवश्यक है और इस भूमिका में तो हिंदी को ही रखना श्रेयष्कर होगा।
हिंदी के प्रचार में अग्रणी भूमिका निभाने वाले महाराष्ट्र के काका कालेलकर ने हिंदी में संपर्क भाषा के सभी गुण देखे थे। उनका कहना रहा कि हिंदी माध्यम स्वदेशी है। करोड़ों भारतवासियों की जनभाषा हिंदी ही है। दूसरा कारण यह है कि सब प्रांतों के संत कवियों ने सदियों से हिंदी को अपनाया है। यात्रा के लिए जब लोग जाते हैं तो हिंदी का ही सहारा लेते हैं। परदेशी लोग जब भारत भ्रमण करते हैं तब उन्होंने देख लिया कि हिंदी के ही सहारे वे इस देश को पहचान सकते हैं।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संपर्क भाषा में ये गुण होने ही चाहिएं- उसका व्याकरण और वाक्य-संरचना जटिल न हो, उसकी शब्दावलिया इतनी आसान और उच्चारण में सहज हों कि उन्हें केवल सुनकर कंठस्थ किया जा सकें, उसे विभिन्न सांस्कृतिक, व्यावसायिक, राजनीतिक आदि परिवेश में क्रिया-व्यापार के अनुकूल ढाला जा सके, उसमें अन्य भाषाओं के सहज शब्दों को अपनाने की स्वाभाविक क्षमता हो, वह अपने-आप लोगों के बीच लोकप्रिय हो सके, भारत जैसे बहु-भाषी देश में वह विभिन्न तबकों के लोगों द्वारा नि:संकोच रूप से स्वीकार्यता प्राप्त कर सके; संपर्क भाषा बोलने और सुनने में आत्मीय और प्रिय हो तथा इसके माध्यम से संक्षेप में संप्रेषण किया जा सके। ये सभी गुण अंग्रेजी की तरह हिंदी में भी हैं। सच तो यह है कि यह पहले से ही जनमानस में अपनी पैठ बनाए हुए है। सूचना माध्यमों में इसका प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। ऐसे में जरूरत सिर्फ इतनी है कि इसे प्रतिष्ठा प्रदान की जाए। बिलकुल उसी तरह से जिस तरह राष्ट्रीयता को मिली हुई है। तभी अपने गौरव को हासिल कर पाएगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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