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कांग्रेस के लिए गले की फांस बन गया उत्तराखंड

the third eye
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कांग्रेस ने पहाड़ी राज्य उत्तराखंड पर कब्जा तो कर लिया, मगर आंतरिक कलह की वजह से यहां की सत्ता उसके लिए गले की फांस बन गई है। कांगे्रस हाईकमान ने किसी जमाने में कांग्रेस से बगावत करने वाले दिग्गज नेता हेमवती नंदर बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री घोषित कर शपथ भी दिलवा दी, दूसरी ओर राज्य के खांटी नेता हरीश रावत बगावत पर उतर आए हैं। बताते तो यहां तक हैं कि उन्होंने अपने अपमान को प्रतिष्ठ का सवाल बना दिया है और भाजपा से मेल मुलाकात बढ़ा रहे हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए सत्ता का ताज कांटों भरा नजर आने लगा है, जिसका संकेत इसी से मिलता है कि उनके शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस के केवल 10 विधायक ही उपस्थित थे, जबकि रावत के दिल्ली स्थित निवास पर 18 विधायक जुटे थे। इस मसले पर जहां तक कांग्रेस हाईकमान के रुख का सवाल है, उसे पहले से पता था कि रावत बगावती तेवर अपना सकते हैं, इसके बावजूद वह सख्त नजर आ रहा है। उधर रावत ने मंत्रीपरिषद से इस्तीफा दे कर दबाव बनाने की कोशिश की है। अब सबकी नजर इस पर है कि ये बगावत कांगे्रस सरकार को ले डूबेगी या रावत निपट जाएंगे।
इस मसले का सबसे रोचक पहलु ये है कि उत्तराखंड हालांकि है छोटा सा राज्य, लेकिन उस पर चर्चा ऐसे हो रही है, मानो कोई राष्ट्रीय मसला हो। इसकी वजह ये कि रावत मीडिया मैनेजमेंट में माहिल हैं और अनेक पत्रकार रावत की उपेक्षा को कांग्रेस के लिए आत्मघाती बता रहे हैं, जबकि दूसरी ओर कांग्रेस हाईकमान के नजदीकी पत्रकार पूरे चुनाव के दौरान रावत की ओर से की जा रही बदमाशी को उजागर कर उन्हें कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
बताया जा रहा है कि उत्तराखंड में प्रत्याशियों के चयन के दौरान ही रावत ने खुद मुख्यमंत्री बनने की बिसात बिछाना शुरू कर दी थी। इसके लिए अंदर की अंदर बसपा से तार जोड़ रखे थे। इसका खुलासा तब हुआ जब उन्होंने बसपा के समर्थन से सरकार बनाने ऐलान कर दिया, जबकि कांग्रेस के बागी बन कर जीते निर्दलीय विधायकों से सहयोग से भी यह संभव था। इस पर कांग्रेस हाईकमान की त्यौरियां चढ़ गईं और उसने तय कर लिया कि इस प्रकार के क्षत्रप को निपटाना ही बेहतर रहेगा, वरना बाद में दिक्कत पेश आएगी। ज्ञातव्य है कि कांग्रेस की शुरू से यह शैली रही है कि वह कभी उभरते राज्य स्तरीय क्षत्रपों को बर्दाश्त नहीं करती, हालंकि इससे उसे नुकसान भी होता रहा है। इसके एकाधिक उदाहरण सबके सामने हैं।
राजनीति में रुचि रखने वाले जानते हैं कि पूर्व में इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के जमीनी नेता कमलापति त्रिपाठी के चूंचपड़ करने पर उन्हें निपटा दिया, हालांकि इससे उसे परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ रहे ब्राह्मणों से हाथ धोना पड़ा। हेमवती नंदन बहुगुणा को भी इसी प्रकार निपटाया गया था, जिसके नुकसान की भरपाई करने की सुध वर्षों बाद आई और अब विजय बहुगुणा को गले लगा रही है। कुछ ऐसा ही जगजीवन राम के साथ करने पर जब दलित वोट छिटक गए तो लंबे अरसे बाद उनकी पुत्री मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बना कर वापस खींचने की कोशिश की। एक जमाने में राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिय़ा को इसी कारण राज्यपाल बना कर राजस्थान से बाहर भेज दिया क्योंकि वे भारी पड़ रहे थे।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि ताजा मामले में यद्यपि कांग्रेस के लिए एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई थी, मगर मौके की नजाकत यही थी कि वे फिलहाल रावत को ही तरजीह देते क्यों कि विजय बहुगुणा से रावत जैसी बगावत की उम्मीद नहीं थी। वे इतने दमदार भी नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि शपथ ग्रहण के दौरान वे अपने साथ विधायकों की ताकत नहीं दिखा सके। इसके बावजूद अगर हाईकमान ने उन पर हाथ रखा है तो इसका मतलब ये है कि वह कभी अपने बलबूत खड़े होने वाले नेताओं का पसंद नहीं करती। उसे वे ही नेता पसंद आते हैं जो उसके आदेशों को सिर माथे रखते हैं। यानि आतंरिक लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं है। इस मामले में भी वही नीति अपना रही है। हालांकि यह सच है कि कांग्रेस के जितने भी दिग्गज पार्टी से बाहर गए, वे कहीं के नहीं रहे, इसी कारण कांग्रेस को समंदर भी कहा जाता है, मगर सच्चाई ये भी है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक अनेक राज्यों में उसका जनाधार कम होता गया और अनेक क्षेत्रीय पार्टियां बनने की वजह भी वही रही। कहावत है न कि केवल मूंछ ऊंची रखने के चक्कर में अनेक राजा निपट गए, मगर अकड़ नहीं गई, कांग्रेस पर यह खरी उतर रही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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