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उत्तर प्रदेश की हार से गहलोत पर पड़ सकती है मार

the third eye
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उत्तरप्रदेश और पंजाब में कांग्रेस की हार के बाद राजस्थान को लेकर कांग्रेस हाईकमान बेहद चिंतित है। एक तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार कोई बहुत मजबूत स्थिति में नहीं है, दूसरा मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की दूसरी पारी कुछ खास कामयाब नहीं रही है। इसके अतिरिक्त एक लंबे अरसे से सक्रिय गहलोत विरोधी खेमा यकायक सक्रिय हो गया है। नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे का आक्रामक रुख व गहलोत की चुप्पी हाईकमान की चिंता और बढ़ाए दे रहा है। ऐसे में इस बात की आशंका बलवती हो गई है कि अगला विधानसभा चुनाव संभव है गहलोत के नेतृत्व में न लड़ा जाए।
असल में कांग्रेस हाईकमान के लिए राजस्थान इस कारण भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां कांग्रेस ने बसपा विधायकों को साथ लेकर जैसे-तैसे सरकार बनाई है। बसपा विधायकों के कांग्रेस में विलय का मसला हाईकोर्ट में लंबित भी है। वर्तमान में यहां की 25 में 20 लोकसभा सीटें कांग्रेस के पास हैं। केन्द्र में फिर से कांग्रेस सरकार लाने के लिए इस आंकड़े को बरकरार रखना जरूरी है। यह तभी संभव होगा जबकि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस फिर से सत्ता में आए।
जहां तक सत्ता और संगठन में तालमेल का सवाल है, सी. पी. जोशी को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर उनके स्थान पर डॉ. चंद्रभान को जिम्मेदारी सौंपने के बाद भी गाडी पटरी पर नहीं आई है। खुद डॉ. चंद्रभान ही कह चुके हैं कि मौजूदा हालात में पार्टी 50 से 70 सीटें ही जीत पाएगी, जो कि चिंता का विषय है। हालांकि जोशी के पास संगठन की कमान नहीं है, इसके बावजदू वे अभी शांत नहीं हुए हैं। वे लगातार गहलोत विरोधी गतिविधियों में सक्रिय हैं। वे रामलाल जाट को मंत्री पद से हटाए जाने को मुद्दा बनाए हुए हैं। उनके अतिरिक्त शीशराम ओला, कर्नल सोनाराम, उदयलाल आंजना, परमनवदीप सिंह जैसे बड़े नेता सरकार के कामकाज की तीखी आलोचना करते रहे हैं। सत्ता व संगठन के बीच संबंधों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश पदाधिकारियों और जिलाध्यक्षों की बैठक में मंत्रियों और विधायकों के रवैये को लेकर फिर असंतोष के सुर उठे। कई पदाधिकारियों ने कहा कि मंत्री और विधायक जिलों की बैठकों को तवज्जो नहीं देते और विधायक समानांतर संगठन चला रहे हैं।
एक अहम पहलु ये भी है कि सत्ता और संगठन का नेतृत्व ओबीसी के पास है। यह जातीय समीकरण के लिहाज से परेशानी का सबब बन सकता है। सराड़ा, बालेसर, सूरपुर, गोपालगढ़ और सूरवाल जैसे कांडों के कारण अल्पसंख्यक वर्ग सरकार से नाखुश है। भंवरी प्रकरण ने सरकार की छवि काफी खराब की है। हटाए गए मंत्रियों से संबंधित समुदायों में नाराजगी के संकेत हैं। ऐसे में कांग्रेस के लिए जातीय समीकरण को पुष्ट करना एक महत्वपूर्ण समस्या है।
हालांकि गहलोत ने कई जनकल्याणकारी कदम उठाए हैं, मगर न तो उनका ठीक से प्रचार-प्रसार हुआ और न ही उनकी वजह से सरकार के पक्ष में माहौल बन पाया है। यही वजह है कि अशोक गहलोत के प्रति आमराय उत्साहित करने वाली नहीं है। कई बार कमजोर साबित होने के अतिरिक्त उनकी लोकप्रियता पहले जैसी नहीं रही है। उनके चेहरे से अब लोगों को ऊब होने लगी है। हालांकि उनका विकल्प तलाशना आसान काम नहीं है, लेकिन उनके ही नेतृत्व में चुनाव लडऩा भी खतरे से खाली नहीं है।
उधर भाजपा की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है, लेकिन नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे के आक्रामक तेवर सरकार को परेशानी में डाल रहे हैं। श्रीमती राजे ने जिस प्रकार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को जल महल प्रकरण, कल्पतरू कंपनी को फायदा देना, वेयर हाउस कॉर्पोरेशन को शुभम कंपनी को सौंपने और होटल मेरेडीयन को फायदा पहुंचाने के मामले में घेर रही हैं और गहलोत चुप्पी साधे बैठे हैं, उससे दाल में काला नजर आने लगा है। उधर किरोड़ी लाल मीणा व चंद्रराज सिंघवी जैसे नेताओं को तीसरा मोर्चा बनाने की जुगत का सीधा नुकसान कांग्रेस को होगा।
ऐसा नहीं है कि अकेले गहलोत ही संकट में हैं, अपितु संगठन को भी चुस्त-दुरुस्त करने और ग्रास रूट पर मजबूत करने के लिए संगठन की लगातार बैठकें कर रणनीति बनाने का फैसला किया है। इसके अतिरिक्त फेरबदल की सुगबुगाहट भी शुरू हो गई है। कांग्रेस के प्रदेश पदाधिकारियों और जिलाध्यक्षों की हाल ही हुई साझा बैठक में यह फैसला किया गया है कि प्रदेश, जिला और ब्लॉक स्तरीय बैठकों में नहीं आने वाले पदाधिकारियों का पद छीना जाएगा।
कुल मिला कर कांग्रेस हाईकमान यह समझ गया है कि समय रहते राजस्थान में सत्ता व संगठन के कामकाज को नहीं सुधारा गया तो चुनाव जीतना कठिन हो जाएगा। कांग्रेस के पक्ष में एक बात जरूर जा सकती है कि उत्तरप्रदेश में मायावती की हार के बाद राजस्थान में बसपा कार्यकर्ताओं का रुझान कांग्रेस की ओर हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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