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अन्ना के जमाने में भी यूपी चुनाव पर हावी है जातिवाद

the third eye
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चंद रोज पहले पूरा देश अन्ना हजारे के साथ ऐसा खड़ा था, मानों वह अब देश की तस्वीर बदल कर ही दम लेगा। युवा बाहुओं में बड़ा जोश-खरोश था। पिज्जा-बर्गर संस्कृति में डूबी युवा पीढ़ी की मु_ियां देश को एक नई आजादी के लिए तनी हुई थीं। मगर जैसे ही चुनावी बुखार आया, अन्ना का बुखार उतर गया। चाहे चौपाल पर हो या टीवी पर, जातिवाद व तुष्टिकरण जैसे मुद्दे ही हावी हो गए हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछले दिनों अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को इतना उभार दिया था कि कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था। अन्ना को भी लग रहा था कि वे राजनीतिक दलों विशेष रूप से कांग्रेस को उत्तरप्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य के विधानसभा चुनाव में प्रचार की चेतावनी दे कर अपनी पसंद का लोकपाल बिल पारित करवा लेंगे। इसी कारण उन्होंने बार-बार धमकी भरे लहजे में हुंकार भरी। मगर हुआ ये कि दिल्ली के जंतर-मंतर की तुलना में मुंबई का धरना टांय-टांय फिस्स हो गया और उन्हें स्वास्थ्य कारणों अथवा अथवा अन्य वजहों से अपना आंदोलन वापस लेना पड़ा। ऐसा नहीं है कि आमजन में मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ आग नहीं है अथवा बुझ गई है या धीमी पड़ गई है, मगर अन्ना आंदोलन के तुरंत बाद आए उत्तर प्रदेश के चुनाव में अन्ना फैक्टर कहीं नजर नहीं आ रहा है। राजनीतिक दलों की ओर से भ्रष्टाचार एक हथियार के रूप में जरूर इस्तेमाल किया जा रहा है। विकास का मुद्दा भी जुबानी जमा-खर्च में खूब काम आ रहा है, मगर धरातल का सच ये है कि वहां संप्रदायवाद व जातिवाद पूरी तरह से हावी है। मीडिया के लाख चिल्लाने के बाद भी माफिया व बाहुबलियों का आत्मविश्वास डगमगाया नहीं है। प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर यह बात आती तो है कि जब बिहार जैसा पिछड़ा राज्य विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ सकता है तो राजनीति में सबसे अग्रणी राज्य उत्तरप्रदेश क्यों नहीं, मगर सच्चाई ये है कि आज भी पूरी राजनीति केवल जातिवाद पर केन्द्रित हो गई है। हालत ये है कि जातिवाद में भी अनुसूचित जातियों के बीच वर्ग भेद खुल कर सामने आने लगा है। हर दल येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना रहा है। सभी दलों ने प्रत्याशियों का चयन जातिवाद के आधार पर ही किया है और खींचतान भी हिंदू-मुस्लिम व अगड़े-पिछड़े पर हो रही है। तुष्टिकरण की नीति के आरोप अपने कांधे पर लेकर चल रही कांग्रेस तो मुस्लिमों के वोट खींचने के लिए एडी चोटी का जोर लगा ही रही है, राष्ट्रवाद का तमगा लिए घूमती भाजपा भी जातीय समीकरणों के खेल में उमा भारती पर दाव खेल रही है। वे उनके उग्र हिंदूवादी चेहरे का भी जम कर इस्तेमाल कर रही है। सपा-बसपा के अपने-अपने वोट बैंक हैं और मूल प्रतिस्पद्र्धा भी उन दोनों में ही है, मगर कांग्रेस व भाजपा में दोनों से आगे निकलने की छटपटाहट कुछ ज्यादा ही है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर भले ही विकास करवाने व उत्तरप्रदेश की तस्वीर बदलने के नाम पर वोट मांग रहे हैं, मगर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का उदाहरण सबसे ज्वलंत है, जो यह साबित करता है कि चुनाव में लोकपाल, काला धन, सुशासन और विकास से कहीं अधिक महत्व रखता है धर्म व जाति का वोट बैंक। कांग्रेस के परंपरागत अनुसूचित जाति वोट पर सपा व बसपा का कब्जा होने के कारण कांग्रेस को ज्यादा उम्मीद मुस्लिम वोट बैंक से है। यदि विकास की बात हो भी रही तो राज्य के समग्र विकास की बजाय विभिन्न पिछड़ी जातियों व मुसलमानों के उत्थान पर केन्द्रित है।
लब्बोलुआब, सवाल ये है कि आज का दौर जब अन्ना का दौर कहला रहा है और उन्हें दूसरी आजादी के लिए महात्मा गांधी के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जा रही है तो आखिर वजह क्या है कि चुनाव आते ही हम हम सब कुछ भूल कर जातिवाद पर आ गए हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि विकास, भ्रष्टाचार व सुशासन जैसे हमारे दिमाग में आंदोलन जरूर पैदा कर रहे हैं, मगर हमारे दिलों में अब भी जातिवाद का ही बोलबाला है। और हम जज्बाती हिंदुस्तानी अपनी फितरत के मुताबिक दिमाग की बजाय दिल की ज्यादा सुनते हैं। अन्ना जैसे आंदोलन हमें प्रभावित तो करते हैं, मगर उनकी पैठ दिल तक नहीं हो पाती।
इसके विपरीत अन्ना की आग में अब भी तपिश महसूस करने वालों का तर्क है कि उन्हीं की वजह से आज राजनीतिक वर्ग में भय की भावना उत्पन्न हुई है। वे कहते हैं कि ये अन्ना के आंदोलन का ही असर था कि मायावती को अपनी छवि सुधारने की खातिर अनेक मंत्रियों को रुखसत करना पड़ा। कुछ इसी तरह मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के डॉन डी पी यादव को समाजवादी पार्टी में शामिल करने से इनकार कर दिया। कांग्रेस ने भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों से कुछ बचने की कोशिश की है। कुछ इसी प्रकार भाजपा को भी बाबूसिंह कुशवाहा को निगलने के बाद फिर उगलना पड़ा। अन्ना वादियों का मानना है कि अन्ना फैक्टर के कारण ही छह माह पूर्व भाजपा को उत्तराखंड में चुनाव से पहले अपना मुख्यमंत्री बदलने को बाध्य होना पड़ा।
कुल मिला कर उत्तरप्रदेश का चुनाव पूरी तरह से असमंजस से भरा है। सारे मुद्दे गड्ड मड्ड हो चुके हैं। ऊपर कुछ और नजर आता है और अंडर करंट कुछ और माना जा रहा है। ऐसे में इतना तय है कि भले ही अन्ना फैक्टर को गिनाने के लिए आंका जाए, मगर प्रभावित करने वाले मुद्दे जातिवाद, धन बल व बाहुबल साबित होंगे।

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